Thursday, June 2, 2011

Vah Stree Likh Rahi Hai By Sundeep Awasthi

ISBN :  978-93-80470-06-1
वह स्‍त्री लिख रही है लेखक संदीप अवस्‍थी
                             
आज के प्यार में न तो सहज पवित्राता है। न उच्च नैतिक बोध फिर भी ऐसे लोग हैं जो इसके नैतिक मूल्य को बनाये हैं। संदीप ने मृत्यु पर भी अनेक कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं में हमारे समय के नैतिक पतन का गहरा एहसास बार-बार सजग करता है। आज की कविता में किसान तथा गाँव जीवन के चित्रा विरल हैं। पर संदीप ने उधर ध्यान दिया है। ऐसी जगह उनकी कविता का स्वर एकदम अलग तथा ताजा लगता है ‘कार्यशाला’ कविताओं में उन्होंने उन लेखक लेखिकाओं पर सहज व्यंग्य किया है जो किसान तथा ग्राम जीवन को देखे, जाने बिना दिल्ली जैसे महानगरों के सज-धजे कमरों में बैठकर कविताएँ लिखते हैं। प्रकाशन पाते हैं। पुरस्कृत होते है। इन दोनांे कविताओं में संकेत है कि बिना कुलीन मानसिकता छोड़े किसान जीवन को नहीं समझा जा सकता। उनके कठिनश्रम तथा अभावों से हमें एकात्म होना पड़ेगा। संदीप आज के महानगरवासी कवियों को संबोधित कर कहते हैंµ
लेखिकाएँ देख रही हैं श्रम की कविता धरती पर/पसीने की स्याही से लिखती महिलाओं को.../बंजर धरती पर हाड़-तोड़ मेहनत, खुदाई/निराई, हल जोतते देखते हमारे साथी।
देखो गांव की हमारी बहनें जा रही हैं सिर पर रख कर/तगारियों में खुदी खरपतवार, मिट्टी, पत्थर फैंकने।
‘कार्यशाला’ कविता में कवि ने लेखक लेखिकाओं को गाँव में तीन दिवसीय कार्यशाला रखने का सुझाव देकर गांव के जीवन के चित्रा दिये है। अंत में कवि का प्रस्ताव हैµ
”निश्चय किया सभी मित्रों ने कि/आलोचक, लेखक हल चलायेंगे/लेखिकायें करेंगी गांव की स्त्रिायों की संगत/रसोई, खेत और पानी भरने के अंदर/एक नई कविता आज लिखी/और बांची जा रही है।“
मुझे इन कविताओं में सबसे सशक्त पक्ष लगता है कविता को सर्वहारा के कठिन श्रम से जोड़कर उसे नई उ$ंचाइयों पर ले जाना। यह बात आज की कविता में विरल है।
संदीप में राजनीतिक चेतना के सहज स्फुलिंग जहां तहां दिखते हैं। वे आज के लोकतंत्रा में उन नैतिक मूल्यों की कद्र करते है जो एक सुंदर समाज बनाने के लिये बहुत जरूरी है। वह चरम वाम पंथ का प्रतिरोध करते हैं। नक्सलवाद पर इस संग्रह की तीन चार कविताएँ मूल्यवान है। इक्कीसवीं सदी में दिशाहीन हिंसा, अराजकता, लूटमार, जोर-जबरदस्ती, अपहरण, अबोध आदिवासियों की क्रूर हत्यायें हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करती है। अबोधों को मार कर तथा औद्योगिक विकास को रोक कर कोई क्रांति सम्भव नहीं। क्रांति एक सुसंबद्ध विज्ञान है। उसका एक वैज्ञानिक दर्शन है। नक्सलवादी अराजकता से तो पूंजीकेन्द्रित समाज ही सुदृढ़ होता है। खासतौर से उस समय जब हमारा देश बड़ी कठिनाइयों का सामना कर रहा हो। इससे कोई भी राष्ट्र संगठित नहीं होता। वह बँटता, बिखरता है। दूसरे, हमारे नवयुवक दिग्भ्रमित होकर मारे जा रहे हैं। जीवन बहुत मूल्यवान होता है। इस तरह उसे नष्ट करना उचित नहीं। महान चिंतक लेनिन ने ऐसे चरमवाम को ‘बचकाना उग्रवाद कहा है।’ इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत को इससे बहुत बड़ा खतरा है। कवि ने इस ओर हमारा ध्यान खींचा हैµ
मेरे भाई, जो उठा रहे हो हथियार/बहा रहे हो खून, कर रहे हो धमाके/उससे क्या करना चाहते हो हासिल।
बच्चों की जान लेते-लेते/हो जाओगे खत्म अपने ही खून में।
अच्छी बात यह है कि संदीप सिर्फ समस्या ही खड़ी नहीं करते, बल्कि लोकतांत्रिक विकल्प भी सुझाते हैं। हमने अंग्रेजों के विरुद्ध मुक्तिसंग्राम लड़ा है। गांधी जी ने हमें अहिंसा का रास्ता दिखाया है। माओ ने, जहां तक, मैंने पढ़ा है ऐसे खून-खराबे को कभी अपने दर्शन में जगह नहीं दी। यदि भारतीय जनशक्ति संगठित होकर आवाज उठाती है तो बुनियादी परिवर्तन होके रहेगा। हमंे इस संदर्भ में विश्व में हुये बड़े राजनीतिक परिवर्तो से सबक लेना जरूरी है। इन कविताओं का स्वर बहुत गंभीर है। संकेत बड़े सटीक। आज के कवि को ऐसे मसलों पर बोलना बहुत जरूरी है।
संदीप कविता और कवि कर्म के प्रति बहुत सजग है। आस्थावान भी। एक कविता हैµअभागा। कविता में इसके दो अर्थ हैं। एक तो भाग्यहीन। दूसरा, जो अपने पथ से कभी विचलित नहीं होता। आजकल सार्थक को निरर्थक तथा निरर्थक को सार्थक बनाने का खेल बड़े पैमाने पर खेला जा रहा है। यह जीवन के हर क्षेत्रा में हैं। साहित्य में सबसे ज्यादा। इस कविता में ध्वनि है कि एक कर्मनिष्ट व्यक्ति की आस्था अडिग होती है। उसे अपने काम की स्वीकृत मिले न मिले। वह उसकी चिंता नहीं करता। एक समय आता है वह समाज में अकेला होता है। कविता की पंक्तियां हैµ
अभागा, अभागा, अभागा/जो करे कठिन काम/कड़ी मेहनत, परिश्रम/और योग्यता के बाद भी/कोई न कहे दो शब्द/फिर भीµ/वह जाता है अपनी धुन में/कई बार दिखता है हमको/है साधारण सा/मामूली सा/संघर्षो के पथ पर अकेला/कोई नहीं है उसके साथ। ऐसे ही कर्म-वीर किसी भी क्षेत्रा में उ$ंचाइयों छूते दिखते हैं। वे अपना पथ स्वयं बनाते हैं। बाद में सामान्य लोग उसका अनुभव भी करते हैं। इन कविताओं की बड़ी ताकत है कविता को श्रम से जोड़ना। यह बड़ा सरोकार संदीप की कविता में बार-बार व्यक्त हुआ हैµ
‘कवि’ कविता की पंक्तियां हैµवो जो दूर सड़क पर खींच रहा है/लदा हुआ ठेला/बहा रहा पसीना और लगा रहा जोर/वह कह रहा है/श्रम की कविता। यहां निराला की एक प्रसिद्ध कविता याद आती हैµमानव जहां बैल घोड़ा है/कैसा तन मन को जोड़ा है।
इसी तरह नागार्जुन की कविता है रिक्शा चालक परµ
खुद गये/दूधिया निगाहों में/फटी बिबाइयों वाले खुरदरे पैर/धंस गये/कुसुम-कोमल मन में/गुट्ठल घट्ठों वाले पैर/दे रहे थे गति/रबड़-विहीन ठूंठ पैडलों को/चला रहे थे/एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चक्र...।
श्रम-सौंदर्य प्रेरित संदीप की ये कविताएँ हिंदी की इसी मुख्यधारा की कविताएँ हैं। संदीप की एक और कविता हैµ‘देखता रहता हूँ’
थके कदमों से/धीरे-धीरे मेरी गली के सिरे पर/कचरे के ढेर में/न जाने क्या ढूंढते रहे हैं उसके हाथ/मां बच्चा ढूंढ रहे हैं/अपना सहारा उस बदबू के ढेर में/उसका भी कोई भविष्य है/मैं देखता हूं उसे/छोटा पाता हूं/अपने को।
किसी कवि को तथा इन्सान को भी मानवीय की यह उच्चतम सीमा है। इसी तरह ‘हम नहीं लिखते कविता’ में संदीप फिर श्रम से कविता को जोड़ते हैंµ
हाथ ही कविता लिखते हैं/हाथ ही रसोई बनाते हैंµयानि कविता कठिन श्रम से उपजती है।
लेकिन जीवन में हमारे ज्यों-ज्यों सुख सुविधाएँ बढ़ती हैं, हम उसके स्वाद में अधिक लिप्त होते हैं। पर उसी अनुपात में कविता में सहजता, सरसता तथा संप्रेषणीयता गायब होती जाती है। महत्वपूर्ण बात है कवि यहाँ कविता को कवि के आचरण से जोड़कर देखता है। संकेत है जैसी कविता हम रच पाते हैं वैसा जीवन में भी चरितार्थ करके दिखायें। यह बड़ी बात है जिससे आज के बड़े-बड़े कवि कतराते हैं। उनके अनुसार कवि का जीवन और कविता को मिलाकर देखना उचित नहीं। इस तरह कवि स्वैरता के लिये भारी छूट लेकर जीवन के नैतिक मूल्यों को एक तरफ ढकेल देता है।
संदीप की कविताओं के विषय विविध है। उनका अनुभव बहुरंगीय है। उन्होंने अविवाहित स्त्रिायों तथा नेत्राहीनों जैसे विरल विषयों पर कविताएँ लिखी हैं। यहाँ जीवन की विडंबनाएँ और मार्मिक त्रासदियां व्यक्त हुई हैं। इस विविधता से इन कविताओं का फलक चैड़ा हुआ है। सर्वहारा के पक्षधर कवि को जीवन के समग्र पहलुओं को दिखाना ही उचित है। संदीप की भाषा बहुत सहज है। कहीं कोई न तो शब्द चमत्कार है न कृत्रिम दुरूहता। कविता जैसे हमसे संवाद कर रही हो। कवि पृष्ठभूमि में तटस्थ बैठा इस संसार की महामाया का नाटक देखता हो।     

मूल्‍य - 200/-                            
                             
                                   
                                       

1 comment:

  1. बधाई व शुभकामनाएं ! पुस्तक उपलब्ध कराने की कृपा की जाय- अरविन्द श्रीवास्तव, मधेपुरा. मोबाइल- 09431080862.

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