Sunday, November 27, 2011

Thursday, June 2, 2011

Vah Stree Likh Rahi Hai By Sundeep Awasthi

ISBN :  978-93-80470-06-1
वह स्‍त्री लिख रही है लेखक संदीप अवस्‍थी
                             
आज के प्यार में न तो सहज पवित्राता है। न उच्च नैतिक बोध फिर भी ऐसे लोग हैं जो इसके नैतिक मूल्य को बनाये हैं। संदीप ने मृत्यु पर भी अनेक कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं में हमारे समय के नैतिक पतन का गहरा एहसास बार-बार सजग करता है। आज की कविता में किसान तथा गाँव जीवन के चित्रा विरल हैं। पर संदीप ने उधर ध्यान दिया है। ऐसी जगह उनकी कविता का स्वर एकदम अलग तथा ताजा लगता है ‘कार्यशाला’ कविताओं में उन्होंने उन लेखक लेखिकाओं पर सहज व्यंग्य किया है जो किसान तथा ग्राम जीवन को देखे, जाने बिना दिल्ली जैसे महानगरों के सज-धजे कमरों में बैठकर कविताएँ लिखते हैं। प्रकाशन पाते हैं। पुरस्कृत होते है। इन दोनांे कविताओं में संकेत है कि बिना कुलीन मानसिकता छोड़े किसान जीवन को नहीं समझा जा सकता। उनके कठिनश्रम तथा अभावों से हमें एकात्म होना पड़ेगा। संदीप आज के महानगरवासी कवियों को संबोधित कर कहते हैंµ
लेखिकाएँ देख रही हैं श्रम की कविता धरती पर/पसीने की स्याही से लिखती महिलाओं को.../बंजर धरती पर हाड़-तोड़ मेहनत, खुदाई/निराई, हल जोतते देखते हमारे साथी।
देखो गांव की हमारी बहनें जा रही हैं सिर पर रख कर/तगारियों में खुदी खरपतवार, मिट्टी, पत्थर फैंकने।
‘कार्यशाला’ कविता में कवि ने लेखक लेखिकाओं को गाँव में तीन दिवसीय कार्यशाला रखने का सुझाव देकर गांव के जीवन के चित्रा दिये है। अंत में कवि का प्रस्ताव हैµ
”निश्चय किया सभी मित्रों ने कि/आलोचक, लेखक हल चलायेंगे/लेखिकायें करेंगी गांव की स्त्रिायों की संगत/रसोई, खेत और पानी भरने के अंदर/एक नई कविता आज लिखी/और बांची जा रही है।“
मुझे इन कविताओं में सबसे सशक्त पक्ष लगता है कविता को सर्वहारा के कठिन श्रम से जोड़कर उसे नई उ$ंचाइयों पर ले जाना। यह बात आज की कविता में विरल है।
संदीप में राजनीतिक चेतना के सहज स्फुलिंग जहां तहां दिखते हैं। वे आज के लोकतंत्रा में उन नैतिक मूल्यों की कद्र करते है जो एक सुंदर समाज बनाने के लिये बहुत जरूरी है। वह चरम वाम पंथ का प्रतिरोध करते हैं। नक्सलवाद पर इस संग्रह की तीन चार कविताएँ मूल्यवान है। इक्कीसवीं सदी में दिशाहीन हिंसा, अराजकता, लूटमार, जोर-जबरदस्ती, अपहरण, अबोध आदिवासियों की क्रूर हत्यायें हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करती है। अबोधों को मार कर तथा औद्योगिक विकास को रोक कर कोई क्रांति सम्भव नहीं। क्रांति एक सुसंबद्ध विज्ञान है। उसका एक वैज्ञानिक दर्शन है। नक्सलवादी अराजकता से तो पूंजीकेन्द्रित समाज ही सुदृढ़ होता है। खासतौर से उस समय जब हमारा देश बड़ी कठिनाइयों का सामना कर रहा हो। इससे कोई भी राष्ट्र संगठित नहीं होता। वह बँटता, बिखरता है। दूसरे, हमारे नवयुवक दिग्भ्रमित होकर मारे जा रहे हैं। जीवन बहुत मूल्यवान होता है। इस तरह उसे नष्ट करना उचित नहीं। महान चिंतक लेनिन ने ऐसे चरमवाम को ‘बचकाना उग्रवाद कहा है।’ इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत को इससे बहुत बड़ा खतरा है। कवि ने इस ओर हमारा ध्यान खींचा हैµ
मेरे भाई, जो उठा रहे हो हथियार/बहा रहे हो खून, कर रहे हो धमाके/उससे क्या करना चाहते हो हासिल।
बच्चों की जान लेते-लेते/हो जाओगे खत्म अपने ही खून में।
अच्छी बात यह है कि संदीप सिर्फ समस्या ही खड़ी नहीं करते, बल्कि लोकतांत्रिक विकल्प भी सुझाते हैं। हमने अंग्रेजों के विरुद्ध मुक्तिसंग्राम लड़ा है। गांधी जी ने हमें अहिंसा का रास्ता दिखाया है। माओ ने, जहां तक, मैंने पढ़ा है ऐसे खून-खराबे को कभी अपने दर्शन में जगह नहीं दी। यदि भारतीय जनशक्ति संगठित होकर आवाज उठाती है तो बुनियादी परिवर्तन होके रहेगा। हमंे इस संदर्भ में विश्व में हुये बड़े राजनीतिक परिवर्तो से सबक लेना जरूरी है। इन कविताओं का स्वर बहुत गंभीर है। संकेत बड़े सटीक। आज के कवि को ऐसे मसलों पर बोलना बहुत जरूरी है।
संदीप कविता और कवि कर्म के प्रति बहुत सजग है। आस्थावान भी। एक कविता हैµअभागा। कविता में इसके दो अर्थ हैं। एक तो भाग्यहीन। दूसरा, जो अपने पथ से कभी विचलित नहीं होता। आजकल सार्थक को निरर्थक तथा निरर्थक को सार्थक बनाने का खेल बड़े पैमाने पर खेला जा रहा है। यह जीवन के हर क्षेत्रा में हैं। साहित्य में सबसे ज्यादा। इस कविता में ध्वनि है कि एक कर्मनिष्ट व्यक्ति की आस्था अडिग होती है। उसे अपने काम की स्वीकृत मिले न मिले। वह उसकी चिंता नहीं करता। एक समय आता है वह समाज में अकेला होता है। कविता की पंक्तियां हैµ
अभागा, अभागा, अभागा/जो करे कठिन काम/कड़ी मेहनत, परिश्रम/और योग्यता के बाद भी/कोई न कहे दो शब्द/फिर भीµ/वह जाता है अपनी धुन में/कई बार दिखता है हमको/है साधारण सा/मामूली सा/संघर्षो के पथ पर अकेला/कोई नहीं है उसके साथ। ऐसे ही कर्म-वीर किसी भी क्षेत्रा में उ$ंचाइयों छूते दिखते हैं। वे अपना पथ स्वयं बनाते हैं। बाद में सामान्य लोग उसका अनुभव भी करते हैं। इन कविताओं की बड़ी ताकत है कविता को श्रम से जोड़ना। यह बड़ा सरोकार संदीप की कविता में बार-बार व्यक्त हुआ हैµ
‘कवि’ कविता की पंक्तियां हैµवो जो दूर सड़क पर खींच रहा है/लदा हुआ ठेला/बहा रहा पसीना और लगा रहा जोर/वह कह रहा है/श्रम की कविता। यहां निराला की एक प्रसिद्ध कविता याद आती हैµमानव जहां बैल घोड़ा है/कैसा तन मन को जोड़ा है।
इसी तरह नागार्जुन की कविता है रिक्शा चालक परµ
खुद गये/दूधिया निगाहों में/फटी बिबाइयों वाले खुरदरे पैर/धंस गये/कुसुम-कोमल मन में/गुट्ठल घट्ठों वाले पैर/दे रहे थे गति/रबड़-विहीन ठूंठ पैडलों को/चला रहे थे/एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चक्र...।
श्रम-सौंदर्य प्रेरित संदीप की ये कविताएँ हिंदी की इसी मुख्यधारा की कविताएँ हैं। संदीप की एक और कविता हैµ‘देखता रहता हूँ’
थके कदमों से/धीरे-धीरे मेरी गली के सिरे पर/कचरे के ढेर में/न जाने क्या ढूंढते रहे हैं उसके हाथ/मां बच्चा ढूंढ रहे हैं/अपना सहारा उस बदबू के ढेर में/उसका भी कोई भविष्य है/मैं देखता हूं उसे/छोटा पाता हूं/अपने को।
किसी कवि को तथा इन्सान को भी मानवीय की यह उच्चतम सीमा है। इसी तरह ‘हम नहीं लिखते कविता’ में संदीप फिर श्रम से कविता को जोड़ते हैंµ
हाथ ही कविता लिखते हैं/हाथ ही रसोई बनाते हैंµयानि कविता कठिन श्रम से उपजती है।
लेकिन जीवन में हमारे ज्यों-ज्यों सुख सुविधाएँ बढ़ती हैं, हम उसके स्वाद में अधिक लिप्त होते हैं। पर उसी अनुपात में कविता में सहजता, सरसता तथा संप्रेषणीयता गायब होती जाती है। महत्वपूर्ण बात है कवि यहाँ कविता को कवि के आचरण से जोड़कर देखता है। संकेत है जैसी कविता हम रच पाते हैं वैसा जीवन में भी चरितार्थ करके दिखायें। यह बड़ी बात है जिससे आज के बड़े-बड़े कवि कतराते हैं। उनके अनुसार कवि का जीवन और कविता को मिलाकर देखना उचित नहीं। इस तरह कवि स्वैरता के लिये भारी छूट लेकर जीवन के नैतिक मूल्यों को एक तरफ ढकेल देता है।
संदीप की कविताओं के विषय विविध है। उनका अनुभव बहुरंगीय है। उन्होंने अविवाहित स्त्रिायों तथा नेत्राहीनों जैसे विरल विषयों पर कविताएँ लिखी हैं। यहाँ जीवन की विडंबनाएँ और मार्मिक त्रासदियां व्यक्त हुई हैं। इस विविधता से इन कविताओं का फलक चैड़ा हुआ है। सर्वहारा के पक्षधर कवि को जीवन के समग्र पहलुओं को दिखाना ही उचित है। संदीप की भाषा बहुत सहज है। कहीं कोई न तो शब्द चमत्कार है न कृत्रिम दुरूहता। कविता जैसे हमसे संवाद कर रही हो। कवि पृष्ठभूमि में तटस्थ बैठा इस संसार की महामाया का नाटक देखता हो।     

मूल्‍य - 200/-                            
                             
                                   
                                       

Abhi Ummeed Baki Hai by Sundeep Awasthi

ISBN : 978-93-80470-05-4
अभी उम्‍मीद बाकी है लेखक संदीप अवस्‍थी

अधिकांश कहानियां घटना प्रधान या भावना और विचार प्रधान होती हैं। घटना प्रधान कहानी दीर्घजीवी नहीं होती लेकिन उसे पढ़कर आत्मसात करने वाले पाठकों की संख्या अधिक होती है। भावना और विचार का समावेश कहानी की उम्र लम्बी करने के साथ पढ़ने वालों की विकास यात्रा में सहायक बनता है। पात्रों और परिस्थितियों, वेश और परिवेश, दिल और दिमाग के साथ रखते हुए संतुलित बलाघात के माध्यम से किया गया कहानी लेखन बहुधा कालजीवी सिद्ध होता है। लेखक की अपनी तैयारी कहानी की दिशा तय करने के संदर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक तत्व है। पाठक ने रचना को समय गुजारने के लिये पढ़ा है या पढ़ा हुआ उसमें आये परिवर्तन का कारण बना है, लेखन की सार्थकता की यह सबसे बड़ी कसौटी है।
डा. संदीप अवस्थी के कहानी संग्रह ‘अभी उम्मीद बाकी है’ में शामिल सभी सोलह कहानियाँ वैचारिक परिपक्वता का प्रतिफल हैं। घटना प्रधान होते हुए भी भावना व विचार को साथ रखकर कहानी का गठन किया गया है। दिल का पलड़ा भारी रहने के बावजूद संग्रह की प्रत्येक कहानी एक तेवर को साथ लेकर चलती है। पठन, अध्यवसाय व चिन्तन के साथ चर्चाओं के माध्यम से मंथन करते हुए डा. संदीप ने जो मुकाम हासिल किया है, उसी का नतीजा है कि उनकी कहानियाँ पाठक में निरंतर कुछ न कुछ जोड़ती है। मनोरंजन के लिये पढ़ी गई कहानियाँ भी शनैः-शनैः पैठ बनाती हुई पाठक के चिन्तन को, उसके सोच व संस्कार को उद्वेलन की राह से कदम-दर-कदम आगे बढ़ाते हुए परिवर्तनकामी की भूमिका में लाकर खड़ा कर देती हैं।
‘सरहद के पार’ में सीमावर्ती क्षेत्रों में तस्करी व्यापार की, ‘वायवा’ में पी-एच.डी. के दौरान सम्पूर्ण प्रक्रिया की, ‘इमोशनल अत्याचार’ में सम्बन्धों की ईमानदारी परखने के लिये स्टिंग आपरेशन की, ‘मुझसे बुरा न कोय’ में साहित्य जगत की अन्तर्कथा को उजागर करते हुए डाॅ. संदीप अपनी कहानियों से पाठक के लिए वे द्वार और खिड़कियाँ खोलते हैं, जिन तक पहुंचने की चेष्टा कम लेखकों ने की है। जानकारी के नये सूत्रों के साथ वे सड़ांध मारते व्यवस्था के हिस्सों का मुकाबला करने के लिये भी सचेत करते हैं।
‘अभी उम्मीद बाकी है’ और ‘मेरे सीने में आग जलती है’ आतंकवाद की समस्या को भिन्न नजरिये से देखने की चेष्टा करती है। ‘गंगा स्नान’, ‘दिल तो बच्चा है जी’ और ‘संगुफन’ अलग-अलग कथ्यों को लेकर लिखी गई हैं। ये कहानियां समस्या को मनोवैज्ञानिक परिणति प्रदान करती हैं और इस अर्थ में मानव मन केा समझकर उसे सकारात्मक दिशा देने की सार्थक कोशिश हैं। दलित चेतना बनाम दलितों के लिये बने कानूनों के अनुचित प्रयोग पर आधारित कहानी ‘अथातो दलित चेतना’ सत्य के उस पक्ष को उद्घाटित करती है जिसे सामने लाने का साहस सामान्यतः कोई नहीं करता। शारीरिक उबालों में डूबी, आंखें बन्द करके भी वातावरण में रची-बसी होने का अहसास कराती स्थितियों का प्रेम के आवरण में प्रदूषण भरी हवा के सांस लेने को उहापोह चित्रित करती कहानी ”उत्तर आधुनिकतावादी प्रेम“ सांस्कृतिक टकराव का दस्तावेज है।
संग्रह की कहानियां व्यक्तिगत जीवन में व्याप्त दुख-सुख, राग-रंग, उतार-चढ़ाव और आकर्षण-विकर्षण की पृष्ठभूमि के बावजूद सीधी सामाजिक सरोकारों की प्रस्तुति हैं। केवल समस्या बयान करके, चारों ओर दिखाई देती विपरीतताओं की ओर संकेत करके, विवशता भाव प्रदर्शित करके कहानियां चुप नहीं हो जाती हैं। जूझने, संघर्ष करने और समस्या पर काबिज होने का जज्बा संग्रह की कहानियों में शब्द-दर-शब्द परिलक्षित होता है। डा संदीप की एक भी कहानी पलायन का पैगाम लेकर नहीं आती। उनकी कहानियां लड़ते-लड़ते दूर तक जाने की प्रेरणा देती हैं। घोषित करती है कि तब तक हथियार मत डालो कि जब तक समस्या पिघलकर पानी न बन जाये।
डा संदीप को साहित्य की कई मंजिलें अभी तय करनी हैं। मुझे विश्वास है कि विचार व भावपदों उनकी कहानियों में समय को साक्षी बनाता रहेगा संतुलन की जो क्षमता उनकी कहानियों में प्रखर रूप से विद्यमान है, कालान्तर में अधिक पुष्ट होकर सामने आयेगी।
मूल्‍य : 200/-

Thursday, April 21, 2011

उजाले का अंधेरा (कविता संग्रह) लेखक मुकुल सरल


ISBN : 978-93-80470-08-5
उजाले का अंधेरा लेखक मुकुल सरल

आज से लगभग चालीस-पैंतालीस वर्ष पहले, जब नयी कविता के घटाटोप और अकविता की विचारशून्य अराजकता से बाहर आकर हिन्दी कविता ने अपनी पुरानी प्रतिज्ञाओं को नये सिरे से परिभाषित किया था तब से वह वादों और दायरों की गिरोहबन्दियों से निकल कर इन्हीं प्रतिज्ञाओं के बल पर अपनी परख कराती आयी है. ये प्रतिज्ञाएं क्या थीं? दमन और उत्पीड़न के खिलाफ मनुष्य के अथक संघर्ष में साझेदारी, यथास्थिति से कभी समझौता न करने का संकल्प, सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी और वास्तविकता को पहचानने और उसे व्यक्त करने का आत्मसंघर्ष. चूंकि हिन्दी का जन्म और विकास ही वंचितों की वाणी और दीन-दलितों की आवाज़ के तौर पर हुआ है, इसलिए हिन्दी कविता की जिन प्रतिज्ञाओं का जि़क्र ऊपर किया गया, वे अपने आप में एक कसौटी बन जाती हैं. यह ठीक है कि जैसे-जैसे हमारे देश में और विशेष रूप से हिन्दी पट्टी में सांस्कृतिक संकट बढ़ा है, साहित्यकार सनद, पुरस्कार और सत्ता के दूसरे ताम-झाम की तरफ़ आकर्षित हो कर इन प्रतिज्ञाओं से दूर गये हैं या इन प्रतिज्ञाओं को ही निरर्थक बता कर किन्हीं ‘शाश्वत’ मूल्यों की तलाश करने लगे हैं, हिन्दी कवियों का एक बड़ा तबक़ा विपथगामी हुआ है. ऐसे में मुकुल सरल जैसे कवि हमें ढाढ़स बंधाते हैं कि साठ के दशक के अन्त में और नक्सलबाड़ी के महान उभार से जो चेतना जन्मी थी, जिसने हमें अपनी पुरानी जुझारू परम्परा से जोड़कर हमें ऊपर बतायी गयी प्रतिज्ञाओं को फिर से अपने घोषणा-पत्रा के रूप में सामने रखने की सलाहियत दी थी, वह ग़लत नहीं थी. 
      अन्त में इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि यह मुकुल सरल का पहला कविता संग्रह है. इसमें अभी कुछ अनगढ़ता भी नज़र आ सकती है. इतना ही नहीं, सभी नये लिखने वालों की तरह वे अभी कई तरह के सुरों को आज़मा कर अपना ख़ास अन्दाज़ हासिल करने की कोशिश में जुटे हुए हैं. हमें उम्मीद करनी चाहिये कि वे अपनी ‘करत’ से इस सुर को साधने में सफल होंगे और उनकी पहली-पहली कविताओं से जो आशाएं बंधती हैं उन्हें अगले मुक़ाम तक पहुंचायेंगे. -नीलाभ
मूल्‍य - 190/- रूपये

Tuesday, March 15, 2011

बतकही


ISBN : 978-93-80470-07-8 
बतकही सम्‍पादक भारतेन्‍दु मिश्र

डीयरपार्क दिलशाद गार्डन मे दि.16-2-11 को हिन्दी के जाने माने आलोचक और वरिष्ठ साहित्यकार डाँ.विश्वनाथ त्रिपाठी का 80वाँ जन्मदिन मनाया गया। पार्क के खुले आँगन मे जहाँ वे रोज सुबह सैर करते हैं वहीं के कुछ लेखक और पत्रकार मित्रो के सहयोग से यह समारोह आयोजित किया गया। इस अवसर पर डीयरपार्क के मित्रो के सहयोग से प्रकाशित बतकही शीर्षक पुस्तक का उन्हे समर्पण किया गया। इस पुस्तक का सम्पादन भारतेन्दु मिश्र ने किया। यह पुस्तक साहित्यिक अड्डेबाजी या साहित्यकारो की गप्प गोष्ठी का एक सहज दस्तावेज है। बाद मे त्रिपाठी जी ने इस पुस्तक का लोकार्पण करते हुए कहा- मै यहाँ बीस वर्षो से आ रहा हूँ ,यहाँ के हमारे सभी मित्रो ने ये जो मेरे लिए आयोजन किया है इससे बडा आयोजन मेरे लिए और हो नही सकता।हम लोग बरसों से एक साथ यहाँ बैठते है क्योकि यहाँ हम आपस मे अपनी रचनाओ की चर्चा नही करते। साहित्य से इतर केवल गप्प होती है तो इसीलिए यह चल रहा है। दूसरी तरह के महत्वाकान्क्षी बहुत से लोग जो हमारे बीच आये भी वो खुद कुछ न मिलने पर चले गये।..तो हम लोग आपस मे इसी लिए लम्बे समय से जुडे है कि हम किसी को कुछ देने की स्थिति मे नही हैं। इसी लिए यह हमारी गप्प गोष्ठी चल रही है।कुछ आते रहे कुछ जाते रहे। हम सबमे कमियाँ हैं-कमियाँ हैं तभी चल रहा है।
समारोह का संचालन लखनऊ से पधारे डियरपार्क के पुराने साथी और पत्रकार विभांशु दिव्याल ने किया। संचालन करते हुए उन्होने - बतकही को साहित्य मे अपनी तरह की पहली किताब बताया जिसमे साहित्यकारो की गप्प को लिपिबद्ध किया गया है। इस अवसर पर अन्य वक्ताओ मे बलराम अग्रवाल, अशोक गुजराती, भारतेन्दु मिश्र, रमेश प्रजापति, जयकृष्ण सिंह आदि ने त्रिपाठी जी को स्वस्थ और दीर्घायु होने की शुभकामनाएँ दीं। इसके साथ ही समारोह मे सुश्री काजल पाण्डेय, हरिनारायण, रमेश आजाद, अंगद तिवारी, राम कुमार कृषक, जयशंकर शुक्ल, वरिष्ठ नागरिक अवतार सिंह सहित अनेक मित्रो ने भाग लिया।
पुस्‍तक का मूल्‍य - 125 रूपये