Thursday, April 21, 2011

उजाले का अंधेरा (कविता संग्रह) लेखक मुकुल सरल


ISBN : 978-93-80470-08-5
उजाले का अंधेरा लेखक मुकुल सरल

आज से लगभग चालीस-पैंतालीस वर्ष पहले, जब नयी कविता के घटाटोप और अकविता की विचारशून्य अराजकता से बाहर आकर हिन्दी कविता ने अपनी पुरानी प्रतिज्ञाओं को नये सिरे से परिभाषित किया था तब से वह वादों और दायरों की गिरोहबन्दियों से निकल कर इन्हीं प्रतिज्ञाओं के बल पर अपनी परख कराती आयी है. ये प्रतिज्ञाएं क्या थीं? दमन और उत्पीड़न के खिलाफ मनुष्य के अथक संघर्ष में साझेदारी, यथास्थिति से कभी समझौता न करने का संकल्प, सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी और वास्तविकता को पहचानने और उसे व्यक्त करने का आत्मसंघर्ष. चूंकि हिन्दी का जन्म और विकास ही वंचितों की वाणी और दीन-दलितों की आवाज़ के तौर पर हुआ है, इसलिए हिन्दी कविता की जिन प्रतिज्ञाओं का जि़क्र ऊपर किया गया, वे अपने आप में एक कसौटी बन जाती हैं. यह ठीक है कि जैसे-जैसे हमारे देश में और विशेष रूप से हिन्दी पट्टी में सांस्कृतिक संकट बढ़ा है, साहित्यकार सनद, पुरस्कार और सत्ता के दूसरे ताम-झाम की तरफ़ आकर्षित हो कर इन प्रतिज्ञाओं से दूर गये हैं या इन प्रतिज्ञाओं को ही निरर्थक बता कर किन्हीं ‘शाश्वत’ मूल्यों की तलाश करने लगे हैं, हिन्दी कवियों का एक बड़ा तबक़ा विपथगामी हुआ है. ऐसे में मुकुल सरल जैसे कवि हमें ढाढ़स बंधाते हैं कि साठ के दशक के अन्त में और नक्सलबाड़ी के महान उभार से जो चेतना जन्मी थी, जिसने हमें अपनी पुरानी जुझारू परम्परा से जोड़कर हमें ऊपर बतायी गयी प्रतिज्ञाओं को फिर से अपने घोषणा-पत्रा के रूप में सामने रखने की सलाहियत दी थी, वह ग़लत नहीं थी. 
      अन्त में इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि यह मुकुल सरल का पहला कविता संग्रह है. इसमें अभी कुछ अनगढ़ता भी नज़र आ सकती है. इतना ही नहीं, सभी नये लिखने वालों की तरह वे अभी कई तरह के सुरों को आज़मा कर अपना ख़ास अन्दाज़ हासिल करने की कोशिश में जुटे हुए हैं. हमें उम्मीद करनी चाहिये कि वे अपनी ‘करत’ से इस सुर को साधने में सफल होंगे और उनकी पहली-पहली कविताओं से जो आशाएं बंधती हैं उन्हें अगले मुक़ाम तक पहुंचायेंगे. -नीलाभ
मूल्‍य - 190/- रूपये