Friday, March 28, 2014

Prathavi Putra by Akhilesh verma




Prathavi Putra by Akhilesh Verma

पृथ्वी, एक खूबसूरत ग्रह। सूरज के परिवार में जड़ा एक अनमोल रत्न। इसकी अनमोलता का कारण था इसकी जीवन प्रदान करने की क्षमता। पूरे सौर परिवार में पृथ्वी ही एक मात्रा ऐसा ग्रह था जिसके पास जीवन प्रदान करने की अद्भुत क्षमता थी। बहुत वर्षों पूर्व शायद इस ग्रह का निर्माण ही जीवन प्रदान करने के लिए किया गया था। उपयुक्त ताप, जल की सुलभता, प्राणवायु की उपस्थिति और अन्य सभी कारक जो जीवन प्रदान करने के लिए आवश्यक होते हैं, पृथ्वी अपने अन्दर समेटे हुए थी। परिणामस्वरूप इस अनमोल ग्रह पर जीवन रूपी वृक्ष का बीज पड़ चुका था। धीरे-धीरे यह वृक्ष बड़ा होता गया अर्थात पृथ्वी पर अनेक प्रजातियों ने जन्म ले लिया था। परन्तु जहाँ निर्माण है वहाँ विनाश भी कदम से कदम मिलाकर चलता है। वृक्ष की शाखाओं की तरह इस जीवन रूपी वृक्ष की शाखाओं का भी टूटना स्वभाविक ही था। अतः अनेक प्रजातियाँ काल के मुख में समा गयीं। फिर इस वृक्ष पर एक नयी शाखा की कोंपलें फूटने लगी। इस नयी शाखा रूपी प्रजाति का नाम था ‘मानव जाति’। वह जाति हिमयुग के पश्चात् विकास की ओर अग्रसर होने लगी। उस प्रजाति ने पृथ्वी के इतिहास को एक नया मोड दे दिया। वह जाति बहुत कुछ तेजी से सीखती गयी। आरम्भ में तो वह जंगली जानवरों की भांति जंगलों, गुफाओं, आदि में ही रही और जानवरों की भांति शिकार कर कच्चा माँस खाकर अपने पेट की अग्नि को शान्त करती रही। कालांतर में इस प्रजाति ने समूह बनाकर रहना सीख लिया और समूह को व्यवस्थित रखने के लिए नियमों का विकास किया। इन्हीं नियमों के फलस्वरूप अलग-अलग सभ्यताओं का अस्तित्व सामने आने लगा। धीरे-धीरे उस प्रजाति ने पेट की अग्नि को शान्त करने के सरल उपाय भी खोज निकाले। इसमें एक प्रमुख था कृषि। इससे उसके पेट की अग्नि को शान्ति सरलता से मिलने लग गई और एक अन्य प्रकार की अग्नि को प्रज्वलित होने का भी मौका मिल गया। वह अग्नि थी ‘ज्ञान की अग्नि’। वह इस अग्नि को........

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