संतों काहे की बेचैनी लेखक अनवर सुहैल
ISBN : 978-93-80470-12-2

अनवर सुहैल कविता में संप्रेषणीयता के आग्रही रहे हैं। इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह कविता के नाम पर सपाट और शुष्क गद्य के समर्थक हों। उनका मानना है कि गद्य लेखकों की बिरादरी आज की कविता को ‘कवियों के बीच का कूट-संदेश’ सिद्ध करने पर तुली हुई है। यानी ये ऐसी कविताएं हैं जिन्हें कवि ही लिखते हैं और कवि ही उनके पाठक होते हैं। कवि और आलोचकों का एक अन्य तबका ऐसा है जो कविता को गूढ़, अबूझ, अपाठ्य, असहज और अगेय बनाने की वकालत करता है। वह प्रश्न खड़ा करते हैं कि किसी साधारण सी बात को कहने के लिए शब्दों की इस बाजीगरी को ही कविता क्यों कहा जाए? इसलिए अपनी कविताओं में वह इस सबसे बचते हैं।
लोकोन्मुखता उनकी कविता मूल स्वर है। लोकधर्मी कविता की उपेक्षा उनको हमेशा सालती रही है। इसी के चलते उन्होंने ‘संकेत ‘पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्रिका के माध्यम से उनका प्रयास है साहित्य केन्द्रो से बाहर लिखी जा रही महत्वपूर्ण कविता को सामने लाया जाय जिसकी लगातार घोर उपेक्षा हुई है। कठिन और व्यस्तता भरी कार्य परिस्थितियों के बावजूद अनवर लिख भी रहे हैं, पढ़ भी रहे हैं और साथ ही संपादन जैसा थका देने वाला कार्य भी कर रहे हैं। यह सब कुछ वही व्यक्ति कर सकता है जिसके भीतर समाज के प्रति गहरे सरोकार समाए हुए हों। बहुत कम लोग हैं जो इतनी गंभीरता से लगे रहते हैं और दूरस्थ जनपदीय क्षेत्रों में रचनारत लोगों के साथ अपने जीवंत संबंध बनाए रखते हैं।
पेशे से माइनिंग इंजीनियर अनवर सुहैल केवल कविता में ही नहीं बल्कि कथा के क्षेत्र में भी समान रूप से सक्रिय रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व राजकमल प्रकाशन से उनका ‘पहचान’ नाम से एक उपन्यास आया है। जो काफी चर्चित रहा है। इस उपन्यास के केंद्र में भी समाज के तलछट में रहने वाले लोगों का जीवन है जो जीवन भर अपनी पहचान पाने के लिए छटपटाते रहते हैं। विशेषकर उन लोगों का जो धार्मिक अल्पसंख्यक होने के चलते अपनी पहचान को छुपाते भी हैं और छुपा भी नहीं पाते हैं। यह कसमकस इस उपन्यास में सिद्दत से व्यक्त हुई है।
बकौल महेश
मूल्य -125 रूपये